मेघ तुम बहरे हुए
रूठे हुए हो पाहुने से
गाँव तक आये तो हो
पर हो दूर ही ठहरे हुए
फट गयी मैं एड़ियों-सी
धूप में तपते हुए
घाव हैं जो नित नयी
इक चोट खाकर.....
और भी गहरे हुए
एक थी बस आस तुमसे
तुम भी पीछे हट गए
जो बुलाते थे तुम्हें दो हाथ मेरे
नीम, पीपल हैं नहीं अब कट गए
मैं तुम्हारी आस में रोऊँ,
कराहूँ,
सूखी जाऊँ
पर नयन में नीर भर कर
अब तुम्हें कैसे बुलाऊँ
सूखी मेरे उर की नदिया
घाट इसके गंदगी से पट गए
इस छोर से उस छोर तक
मैं एक थी
अब मेरे ऊपर
कितने आंगन,
कितने चूल्हे बँट गए
साल बीते आये हो तुम
चार छीटें लाये हो तुम
एक सावन क्या करेगा
यहाँ कितने पतझर घट गए...
कितने पतझर घट गए
-विवेक मिश्रा
Saturday, January 3, 2009
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