Sunday, January 24, 2010

इच्छा
बड़े से अहाते में
छोटी सी साईकिल से
तेज़-तेज़ चक्कर लगाता
सात साल का बच्चा
नहीं जानता कि वह
दुनिया के किस हिस्से में है

वह यह भी नहीं जानता
कि उसके सिर पर
जो नीला मैदान उल्टा लटका है
उसमें कब से चल रहा है
ये सुबह से शाम तक
चमकने वाला
बड़ा सोने का गोला

और वह यह भी नहीं जानता
कि कहाँ से आते हैं
इस नीले मैदान में
ग़ुस्से से घरघराते
मशीनी परिंदे
और गिरा जाते हैं
ग़र्म आग के गोले
उसके घर के पास

पर वह इतना जानता है
कि उसके आस-पास
बहुत कुछ मिट जाने के बाद भी
बस केवल उसी के बचे हैँ
दोनों पाँव
एक साईकिल
और उसे तेज़-तेज़ चलाने की
……………… इच्छा
तेज़-तेज़ चलाने की इच्छा।


अस्तित्व
मैं निरन्तर अस्तित्व
खोता जा रहा हूँ
मैं छोटा और छोटा
होता जा रहा हूँ

अपने क्रोध को, संत्रास को
यूँ दबाकर
मैं ख़ुद अपना
रूप बदला पा रहा हूँ

दर्पण भी हैरान है
छाया मेरी देखकर
मैं नित नए आकार
लेता जा रहा हूँ,

चुक गई संवेदना
मेरे भीतर अब बचा
कुछ भी नहीं
जो बचा बाहर कहीं
वह भी मुझको खा रहा है
मैं भी उसको खा रहा हूँ।

- विवेक मिश्र -

Saturday, January 3, 2009

स्वागत

ख़ुशी आए
है स्वागत
खुली बाँहों से
पर किसी के निवालों का सौदा न हो

महल हों
मख़मली हो बिछौना जहाँ
वहाँ नींद और ख़्वाब की बात क्या
पर नींदों में, सपनों में
जो आकर चुभें
ऐसा टूटा कोई भी
घरौंदा न हो
किसी के निवालों का सौदा न हो

सजी हों महफ़िलें
और छलकते हों प्याले
भूलकर टीस हम भी
झूम लें और गा लें
पर सोया कहीं कोई भूखा न हो
कहीं कोई बरतन औंधा न हो
किसी के निवालों का सौदा न हो

हमारी भी आँखों में तैरे शरारत
सोया जो सड़कों पे बचपन न हो
हम भी करेंगे तरक़्क़ी के दावे
जो हाथों में उनके
वतन बेचने का मसौदा न हो
किसी के निवालों का सौदा न हो
-विवेक मिश्रा

धरती की गुहार

मेघ तुम बहरे हुए
रूठे हुए हो पाहुने से
गाँव तक आये तो हो
पर हो दूर ही ठहरे हुए

फट गयी मैं एड़ियों-सी
धूप में तपते हुए
घाव हैं जो नित नयी
इक चोट खाकर.....
और भी गहरे हुए
एक थी बस आस तुमसे
तुम भी पीछे हट गए
जो बुलाते थे तुम्हें दो हाथ मेरे
नीम, पीपल हैं नहीं अब कट गए
मैं तुम्हारी आस में रोऊँ,
कराहूँ,
सूखी जाऊँ
पर नयन में नीर भर कर
अब तुम्हें कैसे बुलाऊँ
सूखी मेरे उर की नदिया
घाट इसके गंदगी से पट गए
इस छोर से उस छोर तक
मैं एक थी
अब मेरे ऊपर
कितने आंगन,
कितने चूल्हे बँट गए

साल बीते आये हो तुम
चार छीटें लाये हो तुम
एक सावन क्या करेगा
यहाँ कितने पतझर घट गए...
कितने पतझर घट गए

-विवेक मिश्रा

भूख

एक दिन
भूख मिली थी मुझको
कचरे के ढेर से
खाने को कुछ तलाशती
छः इन्च व्यास के
लोहे के छल्ले में
अपना जिस्म

दोहरा करके घुसेड़ती
नट का खेल दिखाती हुई
जून के महीने में
एक-एक अठन्नी
में
ढोल की थाप पर
नंगी पीठ पर कोड़े मारती
एक दिन भूख

मिली थी मुझको
तब से हमेशा
मौलिक लगने वाली
मेरे उदर की भूख
मर-सी गई!

-विवेक मिश्रा

अभिमान

दे रहा सागर थपेड़े
पवन कब से खटखटाती
द्वार तेरे
पर निष्ठुर शिलाओं में
कब अंकुर फूटते हैं
लहर हो या नाव हो
या कि कोई स्वप्न हो
जब भी टकराते हैं
तुमसे टूट्ते हैं
जो पानी की बौछार न हो
पवन का दुलार न हो
तो रेत में तपती हुई
चट्टान होकर क्या करोगे
कौन आ बैठेगा यहाँ पर
फिर शिलाओं का
यह अभिमान लेकर
क्या करोगे
-विवेक मिश्रा