एक दिन
भूख मिली थी मुझको
कचरे के ढेर से
खाने को कुछ तलाशती
छः इन्च व्यास के
लोहे के छल्ले में
अपना जिस्म
दोहरा करके घुसेड़ती
नट का खेल दिखाती हुई
जून के महीने में
एक-एक अठन्नी में
ढोल की थाप पर
नंगी पीठ पर कोड़े मारती
एक दिन भूख
मिली थी मुझको
तब से हमेशा
मौलिक लगने वाली
मेरे उदर की भूख
मर-सी गई!
-विवेक मिश्रा
Saturday, January 3, 2009
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